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दिल्ली हाईकोर्ट ने पूर्व पत्नी की शिकायत पर वकील के खिलाफ FIR रद्द करके दी ये सजा?

दिल्ली हाईकोर्ट
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दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा हाल ही में एक वकील को उनकी पूर्व पत्नी द्वारा उनके खिलाफ दर्ज की गई दो एफआईआर को रद्द करते हुए विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाने एवं  तलाक लेने के बाद दस प्रो बोनो केस लड़ने करने का निर्देश दे  दिया। जस्टिस दिनेश कुमार शर्मा ने भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए, 406 और 34 और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 4 के साथ-साथ आईपीसी की धारा 354 और POCSO अधिनियम की धारा 10 के तहत दर्ज एफआईआर को रद्द करते हुए यह फैसला सुनाया ।

न्यायमूर्ति दिनेश कुमार शर्मा द्वारा यह भी टिप्पणी कि गई कि वर्तमान  समय मे  माना जा सकता है  कि विवाद दोनों पक्षों के बीच वैवाहिक कलह के कारण उत्पन्न हुआ होगा , जिसके परिणामस्वरूप पति के खिलाफ मानसिक एवं  शारीरिक उत्पीड़न, क्रूरता, दहेज की मांग जैसे आरोप लगाए जाते हैं परंतु इसमे बच्चों नाम शामिल करना वह भी ( (POCSO) जैसे संगीन मामले से जोड़ना बहुत ही निंदनीय है, संबंधित मामले मे पति के खिलाफ मानसिक एवं  शारीरिक उत्पीड़न, क्रूरता, दहेज की मांग जैसे आरोप के   साथ बच्चे के  निजी अंग को अनुचित तरीके से छूने को लेकर  दो प्राथमिकी दर्ज की गईं थी । 

आपसी तलाक के बाद पक्षों के बीच समझौते को ध्यान में  रखते हुए , अदालत द्वारा यह  फैसला सुनाया गया कि उन मामलों को जारी रखने से कोई उपयोगी उद्देश्य पूरा नहीं होगा जब शिकायतकर्ता उन्हें आगे बढ़ाने की इच्छा ही  नहीं रखता है साथ ही यह भी कहा गया  कि POCSO जैसा गंभीर मामला एक “गलतफहमी” कारण से दर्ज करवाया  गया था।शिकायतकर्ता ने अदालत को बताया कि उसने अपने पूर्व पति के साथ अपने सभी मतभेदों को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया है और चूंकि उन्हें तलाक दे दिया गया है, इसलिए वह अब शिकायतों को आगे नहीं बढ़ाना चाहती है और अगर इसे रद्द कर दिया जाता है तो उसे कोई आपत्ति नहीं होगी ।

इसलिए अदालत कहा  कि इस तरह के मामले  केवल वैवाहिक लड़ाई जीतने के लिए पार्टियों में एक-दूसरे पर गंभीर आरोप लगाने की बढ़ती प्रवृत्ति मानती है   तथा दूसरे पक्ष को परेशान करने या डराने-धमकाने के लिए इस तरह से आपराधिक  गतिविधि को एक  साधन के रूप में बच्चों का इस्तेमाल किए जाने की प्रथा की कड़ी निंदा भी करती है।  इसके साथ ही अदालत ने यह भी याद दिलाया कि  482 सीआरपीसी के तहत इस न्यायालय के पास न्याय के उद्देश्य को सुरक्षित करने या अदालत की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए किसी भी आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र है,” जिसका उपयोग करके इस तरह के मामले में निर्दोष को परेशान करने से रोका  जा सकता है ।

इसमें अदालत ने यह भी कहा कि  “इसके अलावा, चूंकि ऐसे मामले आपराधिक न्याय प्रणाली पर बोझ डालते हैं, इसलिए याचिकाकर्ता वसीम अहमद, जो पेशे से वकील हैं, उन्हें दस प्रो-बोनो केस लड़ने का निर्देश दिया जाता है।”

प्रो बोनो का अर्थ होता है –  किसी अधिवक्ता की सेवाएं फ्री में उपलब्ध कराना” कि यदि कोई भी व्यक्ति  न्यायालय के समक्ष किसी कार्यवाही में विधिक सहायता / सलाह या प्रतिनिधित्व चाहता है तो उसको किसी अधिवक्ता की सेवाएं फ्री में उपलब्ध कराना प्रो बोनो सर्विस कि श्रेणी में आता है। यह कार्य सामान्यतः  बार-एसोसिएशन के वरिष्ठ अधिवक्ता गरीब व असहाय लोगो को  निशुल्क देते हैं।

अदालत द्वारा  दिल्ली राज्य कानूनी सेवा समिति के सदस्य सचिव से दस मामले सौंपने का अनुरोध किया, जिन्हें वकील इसलिए याचिकाकर्ता वसीम अहमद, नि:शुल्क निपटाएंगे और एक महीने के भीतर अनुपालन रिपोर्ट भी मांगी।

शिकायतकर्ता-महिला एवं  याचिकाकर्ता-वकील दोनों ने अदालत को यह भी बताया कि उनके बीच हुआ समझौता केवल उनके अधिकारों और स्वामित्व के संबंध में था, न कि बच्चों के अधिकारों, स्वामित्व एवं  हितों के संबंध में। जिसपर आदेश में, जस्टिस शर्मा ने कहा कि विवाह से पैदा हुए बच्चे कानून के अनुसार अपने कानूनी अधिकारों का पालन करने के लिए स्वतंत्र होंगे।“

साथ ही अदालत ने यह भी  कहा कि सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ हाई कोर्ट ने भी फैसला सुनाया है कि वैवाहिक मतभेदों से उत्पन्न होने वाले मामलों को शांत कर दिया जाना चाहिए यदि दोनों पक्ष वास्तविक रूप से  समझौते पर पहुंच चुके हैं।

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Tags: Child sexual abuseCourt orderDELHI HIGH COURTdivorceDomestic abuseFIRLawyerMarital disputePOCSOPro bonoSettlementघरेलू हिंसादिल्ली हाईकोर्टपोकसों ऐक्ट
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